- पुष्परंजन
छह वर्षों से अधिक का समय गुज़र गया, तब से दक्षेस आईसीयू में है। दक्षेस के लिए आर्थिक अधिभार सबसे अधिक भारत को उठाना पड़ रहा है। सार्क सचिवालय के रख-रखाव पर ही अकेले 32 फीसद ख़र्च भारत उठा रहा है। भारत दक्षेस को मरने नहीं देना चाहता, पाकिस्तान दक्षेस को जीने नहीं देना चाहता।
दक्षेस का अगला महासचिव कौन होगा? इस सवाल को लेकर सदस्य देश यदि संज़ीदा नहीं दिख रहे हैं, तो समझ सकते हैं कि सार्क को दक्षिण एशियाई नेता किस रूप में ले रहे हैं। 1 मार्च 2020 को श्रीलंका के इसाला रूआन वीराकून ने सार्क के 14 वें सक्रेट्री जनरल का पदभार ग्रहण किया था। लंदन स्कूल ऑफ इकानॉमिक्स से पढ़े इसाला रूआन वीराकून कॅरियर डिप्लोमेट हैं। वीराकून ने अपना पूरा कार्यकाल आरजू और इंतज़ार में ही काट लिया। वो दिल्ली से इस्लामाबाद की यात्रा में आरजू करते रह गये कि 1 मार्च 2023 को उनकी कार्य अवधि पूरी होने से पहले दक्षेस महासचिव का विकल्प ढूंढा जाए। मगर अ$फसोस, उनकी आरजू पूरी हुई नहीं, इंतज़ार का वक्त ख़त्म होने को है।
8 से 14 अगस्त 2021 को एक हफ्ते की औपचारिक यात्रा पर दक्षेस महासचिव इसाला रूआन वीराकून दिल्ली आये थे। उनके आने के दो मुख्य उद्येश्य थे। पहला कोविड के कालखंड में सार्क देशों का आपसी सहयोग कैसे आगे बढ़े, दूसरा अगले महासचिव के लिए जो बाधाएं उपस्थित हो सकती हैं, उसे दूर करने के प्रयास हों। वीराकून की मुलाक़ातें वैसी ही हुईं, जैसे विदेश मंत्रालय का प्रोटोकॉल कहता है। विदेश मंत्रालय में सेक्रेट्री इस्ट, रीवा गांगुली दास से वीराकून मिले। उसके प्रकारांतर विदेश राज्य मंत्री राजकुमार रंजन सिंह, तत्कालीन विदेश सचिव हर्ष वर्द्धन श्रृंगला से सार्क महासचिव मिले, और समस्याएं साझा कीं।
सार्क महासचिव का क़द इतना बड़ा नहीं समझा गया कि हमारे देश के विदेश मंत्री श्रीमान एस. जयशंकर उनसे मिलते। प्रधानमंत्री मोदी का मिलना तो और भी बड़ी बात है। गोकि कोरोना का कालखंड था, तो सार्क से संबंधित ख़बरें उन दिनों वैक्सीन और मास्क भिजवाने के गिर्द घूमती रहीं। सितंबर 2016 से सार्क के पहिए जैसे जाम हो गये थे, उन्हें कैसे चलने लायक़ बनायें, इसाला रूआन वीराकून के बाद कौन आएगा? ऐसे सवाल हाशिये पर थे।
वीराकून 22 दिसंबर 2021 को तीन दिन के वास्ते पाकिस्तान गये, जहां उनकी मुलाक़ात तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से हुई। वीराकून उन दिनों के विदेश मंत्री शाह महमूद $कुरैशी मिले, बाकी कूटनीतिकों से औपचारिक मुलाक़ातें भी हुईं। बावज़ूद इसके, विक्रम और वेताल वाला सवाल जस का तस था। सार्क की अगली बैठक की पहल कौन करे, दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच 'पहले आप-पहले आप' चलता रहा, उसमें पिसते रहे इसाला रूआन वीराकून। वीराकून, सार्क के वर्तमान अध्यक्ष नेपाल के विदेश सचिव भरत राज पौडेल से भी इसी हफ्ते काठमांडो में मिले। विमर्श का केंद्रीय विषय, भावी सार्क महासचिव ही था।
कोविड के कालखंड में भी वीराकून ने अपने प्रयासों को जारी रखने में कमी नहीं की। 15 मार्च 2020 को सार्क के नेता संवाद के लिए तैयार हुए, तब एक पल लगा था कि गाड़ी दोबारा पटरी पर चल पड़ेगी। मगर, इमरान ख़ान ने जानबूझकर जूनियर मंत्री ज़फर मिज़ार् को पीएम मोदी से सवाल-जवाब के लिए स्क्रीन के सामने बैठा दिया। पाकिस्तान के तत्कालीन स्वास्थ्य राज्य मंत्री ज़फर मिज़ार् ने कश्मीर की तथाकथित नाकेबंदी का सवाल उठा दिया। बोले, 'आप अपने हिस्से वाले कश्मीर में नाकेबंदी हटायें, ताकि वहां लोगों को स्वास्थ्य संबंधी मदद पहुंचाई जा सके।' ऐसे वक्तव्य से एक अच्छे ख़ासे प्रयासों पर पानी फिरना ही था। पाकिस्तान के जूनियर मंत्री ने जिस तरह की ज़लील हरकतें कीं, उसे कूटनीतिक बिरादरी ने कहीं से नहीं सराहा था।
छह वर्षों से अधिक का समय गुज़र गया, तब से दक्षेस आईसीयू में है। 15 से 16 नवंबर 2016 को इस्लामाबाद में सार्क शिखर सम्मेलन होना था, मगर इसके ठीक पहले 18 सितंबर 2016 को उड़ी में आतंकी हमला हुआ। चार अतिवादी मार गिराये गये थे, और 19 सैनिक शहीद हुए थे। पाक की शह पर हुए हमले का नताइज़ यह निकला कि 19 वां सार्क सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया गया। यह पाकिस्तान के लिए शर्मनाक स्थिति थी कि अफग़ानिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव ने सार्क सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया था। नेपाल को चूंकि तत्कालीन चेयर की ज़िम्मेदारी पाकिस्तान को सौंपनी थी, इसलिए वह इस प्रकरण में चुप सा रहा।
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) अपनी बुनियाद के 38वें साल में है। 8 दिसंबर 1985 को इसकी स्थापना के बाद से 'सार्क' के अब तक 18 शिखर सम्मेलन हो चुके हैं। इस्लामबाद में तीसरी बार सार्क का 19वां शिखर सम्मेलन होना था। उससे पहले 29 से 31 दिसंबर 1988 को चौथा सार्क समिट, और 4 से 6 जनवरी 2004 को 12वां दक्षेस शिखर सम्मेलन इस्लामाबाद में हो चुका था। 1988 में इस्लामाबाद शिखर बैठक से 27 दिन पहले बेनज़ीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनी थीं। उस साल आहूत चौथे दक्षेस शिखर बैठक में 1989 को 'सार्क इयर अगेंस्ट ड्रग एब्यूज' घोषित किया गया था। 2004 भी इस्लामाबाद सार्क समिट के लिए यादगार था, जब टीवी, एचआईवी एड्स के विरूद्व अभियान छेड़ने का अहद किया गया। उस समय दक्षेस की अध्यक्षता पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मीर ज़फरूल्ला ख़ान जमाली कर रहे थे।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क्यू) के नेता मीर ज़फरूल्ला ख़ान जमाली बलूच थे, और कश्मीर नीति पर उस तरह आक्रामक नहीं थे, जिस तरह की शातिराना चाल 'मोदी जी के मित्र' नवाज़ शरीफ ने चली थी, उससे सार्क का सत्यानाश ही हुआ। नवाज़ शरीफ ने साबित कर दिया था कि कूटनीति में शालीनता दिखाने, मां के चरण छूने, पारिवारिक दोस्ती को बढ़ाने, शाल, पगड़ी जैसे सम्मानजनक तोहफे कोई मायने नहीं रखते। कुर्सी बचाये रखने के वास्ते सेना, अतिवादियों से समझौता कर पड़ोसी से मक्कारी की जा सकती है। ऐसे नेता से दक्षेस का भला नहीं हुआ। 26 से 27 नवंबर 2014 को काठमांडो सार्क समिट का मंज़र कूटनीतिक समुदाय भूला नहीं है, जिसमें नरेंद्र मोदी और नवाज़ शरीफ को मनाने के वास्ते नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को आगे आना पड़ा था। उस समय दोनों नेता, मुंह फु लाये जिस तरह से दक्षेस के मंच पर बैठे थे, उससे सार्क एकता मज़ाक बनकर रह गया था।
नवाज़ शरीफ तो राजनीति के बियावान में चले गये। मगर, सार्क के मंच पर पैंतरेबाज़ी और मुंह फुलाने का यह सिलसिला रुका नहीं। नवाज़ शरीफ़ के बाद शाहिद खक्क़ान अब्बासी, इमरान ख़ान और शहबाज़ शरीफ़ क्रमश: प्रधानमंत्री बने, मगर पाकिस्तान की सार्क नीति अडं़गेबाजी वाली ही रही। 2013 से 2017 तक नवाज़ शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे, और सच पूछिये तो उनके कालखंड में ही दक्षेस अपनी पटरी से उतर गया। नवाज़ के जाने के बाद दूसरी लीडरशिप से जो उम्मीद दक्षेस के सदस्य देशों ने बांधी, वह भी बिखर सी गई।
दरअसल, दक्षेस के चार्टर में ही दोष है, जिस वजह से इसकी गाड़ी के पहिए निकल गये। अबतक 18 शिखर सम्मेलनों में से दो-चार को छोड़कर सभी में भारत-पाक के मुद्दे हावी रहे थे, और मीडिया का फोकस भी इन्हीं दो देशों के नेताओं पर रहता था। 17 जनवरी 1987 को काठमांडो में सार्क सचिवालय की स्थापना की गई। आज भी उस सचिवालय के मेंटेनेंस के वास्ते सर्वाधिक पैसा भारत को देना पड़ रहा है। 2021-22 के केंद्रीय बजट में भारत को सार्क सचिवालय के लिए 12 करोड़, और साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के लिए 314 करोड़ रूपये का आबंटन करना पड़ा। उसी तरह कोविड आपात कोष 17.8 मिलियन डॉलर का बनाया गया। भारत ने तत्काल 10 मिलियन डॉलर उस फंड में दिया। मगर, पाकिस्तान को केवल तीन करोड़ डॉलर देने में नानी याद आ गई।
साउथ एशियन यूनिवर्सिटी खोलनी थी, उसमें भारत ने 2017 तक 30.37 मिलियन डॉलर ख़र्च कर दिये। अफग़ानिस्तान ने 2.3 मिलियन, बांग्लादेश 4.9 मिलियन, भूटान 2.3 मिलियन, मालदीव 1.8 मिलियन, नेपाल 2.9 मिलियन और श्रीलंका ने 2.9 मिलियन डॉलर के योगदान दिये थे। पाकिस्तान ने अहद किया था कि हम 7.85 मिलियन डॉलर साउथ एशियन यूनिवर्सिटी को देंगे। मगर, यहां भी पैसे निकालने में पाकिस्तान अपनी तंगहाली को रोता रहा। ये छोटे-छोटे उदाहरण हैं, जहां दक्षेस के लिए आर्थिक अधिभार सबसे अधिक भारत को उठाना पड़ रहा है। सार्क सचिवालय के रख-रखाव पर ही अकेले 32 फीसदी ख़र्च भारत उठा रहा है। भारत दक्षेस को मरने नहीं देना चाहता, पाकिस्तान दक्षेस को जीने नहीं देना चाहता।
3 अप्रैल 2007 को अफगानिस्तान इस क्षेत्रीय समूह का आठवां सदस्य बन गया। सार्क का संचालन सदस्य देशों के मंत्रिपरिषद द्वारा स्वीकृत महासचिव करते हैं, जिसकी नियुक्ति तीन साल के लिए अंग्रेज़ी वर्णमाला के क्रमानुसार की जाती है। उस हिसाब से महासचिव बनने की अगली बारी अफ ग़ानिस्तान की है। मुश्किल यह है कि अफग़ानिस्तान के तालिबान शासन को अबतक किसी भी देश ने मान्यता नहीं दी है, ऐसे में उसे यह ज़िम्मेदारी नहीं दी जा सकती। दक्षेस चार्टर का अनुच्छेद-10 की केवल एक लाइन सबसे ख़तरनाक है, जिसमें लिखा है कि इस संगठन के सारे फैसले सर्वसम्मति से होंगे। यानी, एक भी सदस्य यदि असहमत हुआ, न तो कोई बैठक होगी, न ही किसी कार्यक्रम का कार्यान्वयन होगा।
एक विकल्प यह भी ढूंढा जा रहा है कि नये सार्क सेक्रेट्री जनरल की नियुक्ति, इसाला रूआन वीराकून की सेवा को ही विस्तार दिया जाए। इस वास्ते श्रीलंका का विदेश मंत्रालय अध्यक्ष देश नेपाल से अनुरोध करे। मगर क्या, सार्क के चार्टर में अध्यक्ष देश को अकेले ऐसा निर्णय लेने का अधिकार है? पिछले दस वर्षों से नेपाल सार्क का अध्यक्ष देश बना हुआ है। चार्टर बनाते समय ऐसी परिस्थितियों की कल्पना नहीं की गई थी। अल्फाबेटिकल बारी की बाध्यता की वजह से सार्क की अध्यक्षता अफग़ानिस्तान को लांघ कर बांग्लादेश को भी दे नहीं सकते। सोचा न था कि एक सदस्य वैसा भी देश होगा कि जिसे दुनिया में कहीं मान्यता नहीं मिल रही। दक्षेस एक ऐसा नासूर बन गया, जो लाइलाज है। इसके चार्टर को संशोधित भी नहीं कर सकते। इससे बेहतर, दक्षेस को द$फन ही क्यों नहीं कर देते?
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